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कोई बच्चा जैसे कटी हुई पतंग को
दौड़कर पकड़ने की कोशिश करता है
ठीक वैसे ही इस वक़्त शाम
आसमान की बालकनी से झुककर
रात को पकड़ रही है
ट्रैफ़िक का कान फोड़ू शोर
देह बाज़ार में बजते फूहड़ गीतों
से जीतने की जंग लड़ रहा है
और मेरे सामने सड़क किनारे
अलग अलग उम्र की कुछ औरतें खड़ी हैं
सड़क पे खड़ी ये औरतें
जिनके चेहरे का रंग हो चुका है सफेद
जैसे किसी ने मुठ्ठी भर आटा
इनकी तरफ़ उछाल दिया हो
जो काजल से लबालब भर चुकी हैं
अपनी आँखों की चाहरदीवारी को
शायद ये आँखों के गड्डों को
छुपाने की अंतिम कोशिश है
ये औरतें अपने कटे- फटे दर्द में भीगे
हुए होटों को चटख लाल रंग से
रंग चुकी हैं मगर लबों की
मुस्कुराहट गायब है
इन्हीं सड़क पे खड़ी औरतों के साथ
कुछ लड़कियाँ खिड़कियों से भी
सड़क पे चलती भीड़ को देख रही हैं
इनकी आँखों ने ख्वाब देखना छोड़ दिया है
इनकी आँखों का काम अब हर रोज़
अपने जिस्म के लिए ग्राहक तलाशना है
मैं इनकी तरफ़ देखता हूँ तो
ये देखता हूँ कि ये मुझे इस तरह देखती हैं
जैसे प्यासा किसी दरिया को देखता है
और फिर कुछ देर बाद मैं
हर शाम की तरह इक अनुभव
और इक सवाल के साथ
लौट जाता हूँ उस सड़क से दूर
सवाल ये कि सड़क के दोनों तरफ़
खड़े इंसानी जिस्मों में
प्यासा कौन है और दरिया है कौन ?
अनुभव ये कि
सड़क पे खड़ी औरतें
सवाल नहीं पूछती l
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